भैरव दादा पहाडी की चोटी पर दुनिया, समाज और उसके बन्धनों से अलग रहता था। उसे दुनिया और दुनियावालों से घृणा थी यहां तक कि सारा गांव भी उससे डरने लगा था। परन्तु विधाता को यह स्वीकार न था। एक दिन संध्या समय एक स्त्री मधु (भैरव की पोती) को घसीटती हुई पहाडी की चोटी पर चढ़ती दिखाई दी और सारे गांव कहने के अतिरिक्त भी वह मधु को भैरव के पास छोड़ कर चली गई।...
अब एक ओर भैरव का पत्थर सा हृदय और दूसरी ओर नन्हीं सी कली का भोला भाला प्रेम। अन्त में अपना ही खून था। खून ने जोर पकड़ा और भैरव ने मधु को हृदय से लगा लिया। मधु का प्रेम अब गांव और में एक तार सा बन गया। अन्त में रक्षा-बन्धन का पवित्र त्योहार मनाने भैरव अपनी अन्धी बहन के यहां चला आया। भैरव ने फिर से समाज में प्रवेश किया और अपनी बहन की लड़की गौरी की शादी रचाने की तय्यारियां करने लगा।
वही स्त्री जो भैरव के लिये शीतल पवन का झोंका बन कर आई थी अब आंधी बन कर आई और मधु को किसी बहाने अपने साथ ले गई। भैरव बेचारा पागलों की तरह अपनी बच्ची की खोज में फिरने लगा और जब गांव में उसका कुछ पता न चला तो शहर की ओर हो लिया।
उधर उस स्त्री मधु को जबरदस्ती एक रायसाहब के यहां नौकर रखवा दिया-रायसाहब की बीमार लड़की का दिल बहलाने के लिये। परन्तु जिसका अपना ही दिल टूट गया हो वह किसी को दिल क्या बहलायेगा। रायसाहब की लडकी मधु को बहुत चाहने लगी और यह उसकी मामी को न भाया-भाभी घर में अपना शासन जमाना चाहती थी। एक दिन मामी का मधु से बुरा वर्ताव रायसाहब ने अपनी आंखोंसे देखा और उसे घर से निकल जाने की आज्ञा दे दी। मामी मधु को उसके दादा के यहां पहुंचाने का चकमा देकर अपने साथ लेगई।
भैरव शहर में मारा मारा फिर रहा था...... मामी मधु को घर से लेकर निकली... भैरव की नजर उस पर पड़ गई...। मामी चिल्लाई... मामला पुलिस में पहूंच गया... आखिर रायसाहब की सहायता से हकदार को उसका हक मिल गया।