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Chand Sitare (1948)

  • Release Date1948
  • FormatB-W
  • LanguageHindi
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देश की जनता की हालत कैसे सुधरी जा सकती है। कैसे उन्हें ग़रीबी और ज़िल्लत की गहरी खाइयों से निकाल कर ख़ुशहाली, कामयाबी, और सफलता के दरवाजे पर खड़ा किया जा सकता है। पुराने रिवाजों और विचारों को क्योंकर जनता के दिमागों से अलैहदा करके उनके नीम मुर्दा जिस्मों और ज़ख्मी रूहों को नये सिरे से तन्दुरुस्ती और जवानी बख्शी जा सकती है। ये है वो सवाल जिसमें हमारे नेताओं को परेशान कर रक्खा है। हम ’चाँद-सितारे’ में एक नया रास्ता जनता को दिखाने की जुर्रत करते हैं कि जो आदमी जिस काम के काबिल हो उसे वही सौंपा जाय, क्यों कि ऐसा न करने से मुल्क के बेहतरीन दीमाग़ एक ही हालत में पड़ें रहने से अपना असलो रूप खो बैठते हैं। दीपक एक पैदायशी शायर था लेकिन उसका बाप एक मांझी, जो मुसाफिरों को एक किनारे से दूसरे किनारे ले जाकर अपना गुज़र बसर करता था वो चाहता था कि दीपक भी चप्पु ही चलाये, लेकिन विधाता को ये मुजूर न था। लेलहाते हुए खेत, दरिया की बलखाती हुई मोजें, गहरा नीला आकाश और चाँद की सुन्दर चाँदनी, ये सब चीज़ें दीपक के जज़बात और उसके ख़्यालात में एक आग सी लगा देती थीं। वह उन्हें संकित करके अपनी कविताएँ सुनाता और अपनी ही बनाई दुनिया में, मस्तियां और रँगीनयां घोलकर उसे हमेशा खूबसूरत बनाये रख्ता। आखिर कुदरत उसे शहर खींच लाई, उसने अपने बापु से वायदा किया कि वो दो दिन में गांव लौट आयेगा। मगर ईश्वर को उसे शहर में रखना और एक बहुत बड़ा कवी बनाना था। यहां उसकी जिन्दगी में दो लड़कियां आई- ’रेखा’ और ’विलास’ पहली उसकी कला की सच्चे दिल से पूजा करती थी और दूसरी उसकी कविता के सहरे दौलत इज़्ज़त, और शोहरत के आसमान पर पहुँचना चाहती थी।

दीपक के पांव कई बार डगमगाये लेकिन उसका दोस्त घायल उसे हमेशा सीधे रास्ते पर ले आया। दीपक को शहर में रहते एक समय बीत बया, उधर गांव में किशती का चलना बन्द हो गया। वहां किश्ती एक ही थी। गांव वाले तंग आ गये, उन्होंने पंचायत की। और दीपक के बापू से कहा कि या तो बसन्त के दिन से किश्ती चलाना शुरू करे या उसे बेच डाले। बापू को किशती जान से ज्यादा प्यारी थी। मगर वो लाचार हो चुका था, ठीक समय पर घायल वहां पहुंच कर उसकी किशती को निलामी से बचाता है और पंचायत को वचन देता है। कि बसन्त के दिन जरूर चलेगी। उधर ’दीपा’ और ’रेखा’ में कुछ अन-समझोती हो जाती है और दीपक का दिल टूट जाता है वो जज़बात में खोकर लिखना-पढ़ना भूल जाता है। अखबार बसन्त के दिन निकलना है, विलास का ड्रामा भी बसन्त के दिन ही खेला जाना है। और उधर गांव में किशती को भी बसन्त के दिन ही चलना है। दीपक बड़ी बिपता में पड़ा है कि क्या करे, रेखा, विलास और गांव वेले तनों उसकी राह देख रहे हैं। जज़बात की ये तीकोनी जंग खूबसूरत भी है और निसीयत देने वाली भी, और इसका नतीजा क्या होता है.... परदे पर मुलाहज़ा फ़रमाईये।

[from the official press booklet]
 

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