22 Sep, 2020 | Archival Reproductions by Cinemaazi
Prem Adib
प्रेमअदीब अवध यू.पी. के रहने वाले हैं। एक प्रतिष्ठित काश्मीरी ब्राह्मण परिवार में, सुल्तानपुर में, सन् 1917 में उनका जन्म हुआ। उन्होंने हिन्दी अंग्रेजी और उर्दू की काफ़ी से अधिक शिक्षा प्राप्त की है किन्तु शिक्षा से अधिक आप में योग्यता है। आपने गत वर्ष लाहौर में, एक कुलीन और सुसंस्कृत परिवार की एक एफ.ए. पास कन्या से विवाह किया है। पति पत्नी दोनों ही अत्यन्त मिलनसार और सुशील हैं। उनका पारिवारिक जीवन बहुत सुखमय है।
प्रेमअदीब को नशे की चीज़ों से बहुत घृणा है, यहाँ तक कि कभी सिगरेट भी नहीं पीते। प्रकाश पिक्चर्स कृत “पुलिस” में आपको सिगरेट पीनी पड़ी है, लेकिन आपने सिगरेट का धुआं गले से नीचे नहीं उतरने दिया था। इस चीज़ की व्याख्या करना और उसके सम्बन्ध में पूरी खोज करना आपकी एक बड़ी ज़बर्दस्त रूचि है। आपके मित्रों की संख्या बहुत ही कम है। आपको अन्य अभिनेताओं की तरह इधर उधर की ठल्लेबाज़ी पसन्द नहीं है। आपका पूरा समय या तो स्टूडियो में व्यतीत होता है, या घर पर। आपको अंग्रेजी फ़िल्मों को देखने का काफी शौक है। आप विद्यार्थी जीवन में क्रिकेट, हाकी और फुटबाल के बड़े अच्छे खिलाड़ी रहे हैं।
मैं जब आपसे मिला तो आपने हँसते हये कहा- ’धर्मेन्द्र जी, मुझे हाई सोसायटी के लोगों से मिलना-जुलना कतई पसन्द नहीं।’
जीवन में मनुष्य का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होना चाहिये। उद्देश्यहीन मनुष्य मनुष्य नहीं रहता।
आपका कहना है कि जीवन में मनुष्य का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होना चाहिये। उद्देश्यहीन मनुष्य मनुष्य नहीं रहता। आपने अपने जीवन का उद्देश्य पाँच शब्दों में बताया-"भावना से कर्तत्य ऊंचा है।" काश्मीरी ब्राह्मण हाने के नाते आप शाकाहारी नहीं थे, किन्तु 'रामराज्य’ में अभिनय करने के आद आप पर इतना प्रभाव पड़ा कि आप अब पूर्णरूप से शाकाहारी हो गये हैं।
पढ़ने लिखने का प्रेमअदीब को बहुत शौक है। हिन्दी के प्रति आपके हृदय में बहुत सम्मान है। आपके घर पर भी एक अच्छी लायब्रेरी है। माहपुरुषों के जीवन से मिलती जुलती अनेक घटनायें आपके जीवन में घटी है.... जिस दिन महादेव भाई देसाई का स्वर्गवास हुआ था उस दिन उसी समय आपके पैर में गहरी मोच आई और आप काफ़ी दिन तक अस्वस्थ रहे। जिस दिन विश्वबन्धु महात्मा गान्धी अपने गत उपवास के दिनोें में, जीवन-मरण के बीच थे, प्रेमअदीब सख्त बीमार थे। परमात्मा की कृपा है कि वे स्वस्थ्य हो गये। जिस दिन महात्मा गान्धी आग़ा खां महल से मुक्त होकर पूना से बम्बई आये थे, उसी दिन प्रेम अदीब को भी अकस्मात पूना से बम्बई आना पड़ा। ऐसी अनेक घटनायें आपके जीवन में घटी हैं।
Song booklet cover of Bharat Milap (1942) from Cinemaazi archive
प्रेमअदीब को जितनी घृणा नशे से है, उतनी ही जुए और रेस आदि से, इन व्यसनों को वे मनुष्य के पतन का साधन करते हैं।
प्रेमअदीब से साल भर के अरसे में बीसियों बार मुलाक़ात हुई हैं, उन्हें मैंने बहुत अच्छा मित्र पाया हैं । ये प्रकृति के शान्त, आदर्शों के पक्के और शील स्वभाव के मिलनसार व्यक्ति है। अभिमान आपको छू भी नहीं गया। दिखावा आप बिल्कुल पसन्द नहीं करते। उनका जीवन वास्तव में अनुकरणीय है। “सचित्र रंगभूमि” के लिए उनसे जो इन्टरब्यू ली है, उसे प्रश्नोत्तर के रूप में पाठकों की सेवा में उपस्थित कर रहा हूँ।
प्र0 इन चित्रों में आप किस-किस चित्र को अधिक पसन्द करते हैं।
उ0 अभी तक मुझे अपने किसी फ़िल्म से तसल्ली नहीं मिली, लेकिन फिर भी 'भरत मिलाप’ अैर ’रामराज्य’ को किसी हद तक अच्छा कह सकता हँ।
प्र0 फिल्म लाइन में प्रवेश करते समय आपका उद्देश्य क्या था; धनोपार्जन, ख्याति या कला की सेवा और क्या इस क्षेत्र में आते समय आपको किन्हीं कठिनाइयों को सामना करना पड़ा।
उ0 उस समय इन तीनों बातों में से कोई भी सामने न थी। कुछ सोचने का अवसर ही न था। सिर पर फ़िल्म-क्षेत्र में प्रवेश करने का भूत सवार था। बहुत सी तकलीफें उठानी पड़ी। बहुत ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा। पहले पहल कलकत्ते गया, वहाँ फुट पाथ पर सोने की नौबत तक आ गई। वहाँ से निराश होकर लौटा, लाहौर गया, लेकिन वहाँ भी निराश ही हाथ लगी। फिर भी मैं हिम्मत न हारा और बम्बई पहुंचा। यहां कोशिश की और सफल हो गया।
Song booklet cover of Police (1944) from Cinemaazi archive
प्र0 आप सबसे अच्छा निर्देशक किसे मानते हैं।
उ0 अच्छा निर्देशक वही है जिसके पास प्रयोग करने के लिए रुपया है और जो उस रुपये को इच्छानुसार वयय कर सकता है। यों तो मैं सर्वश्री विजयशंकर भट्ट, देवकी बोस और शांताराम को क्रमशः अच्छा निर्देशक मानता हूँ।
प्र0 कलाकारों में किसे अच्छा मानते हैं।
उ0 दुर्गा खोटे को। जिसकी आज बहत अधिक ख्याति है।
प्र0 'शकुन्तला' जैसा चित्र बनाकर शांताराम बहुत नीचे गिर गये है, क्या आप इस बात को स्वीकार करते हैं।
उ0 यह बात मेरे सोचने की नहीं है भाई, इस बारे में उन्हीं को सोचना चाहिए और उन्हीं को ध्यान देना चाहिए।
प्र0 भले घर के लड़के लड़कियों के लिये फ़िल्म लाइन कैसी है। क्या वे यहां रहकर अपना चरित्र निर्मल रख सकते ।
उ0 जैसे भले घर के लड़के लड़कियां इस लाइन के लिये है वैसी ही
This is a reproduced article from Rangbhoomi magazine, January 1945 issue.
The images used in the article are from the Cinemaazi archive and were not part of the original article.