16 Sep, 2020 | Archival Reproductions by Cinemaazi
Image Courtesy: Madhuri, 19 March 1971
'फूल और पत्थर' जैसी फिल्में रोज नहीं बना करती। लेकिन हर कलाकर के जीवन में एक न एक 'फूल और पत्थर' होती जरूर है, जिससे उसे पूरा नाम, यश और ख्याति मिलती है। यह ख्याति ही उस कलाकार को टाइप बना देती है। निर्माता उसके उसी टाइप को बेचते हैं। एक दिन टाइप घिस जाता है कलाकार की फिल्में बाक्स आफिस पर नहीं चलतीं और तब वही निर्मातागण जो उस कलाकार के टाइप को बेचा करते थे, कहने लगते हैं, “एक्टर वेक्टर नहीं चलता जी! कहानी चलती है!”
ताराचंद बड़जात्या कहानी बेचने वाले पहले निर्माता थे। उनकी 'दोस्ती' नये चेहरों के बावजूद भी खूब चली थी। लेकिन ’तकदीर’ में ऐसा कुछ न हो सका। इससे यह तो नहीं हुआ कि उन्होंने कहानी के प्रति आस्था छोड़ दी हो, लेकिन यह उनकी समझ में आ गया कि सही रोल के लिए सही कलाकार का होना बहुत जरूरी है। इसीलिए जब उन्होंने 'जीवन मृत्यु’ बनाने की सोची तो उसकी प्रमुख भूमिका के लिए धर्मेन्द्र का नाम सब से आगे था। श्री ताराचंद ने धर्मेन्द्र की फिल्म देखी थी 'फूल और पत्थर’। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि हृषिकेश मुखर्जी ने 'फूल और पत्थर’ देखी ही न हो। उन्होंने धर्मेन्द्र की अनेक फिल्में संपादित की थीं। लेकिन उनके साथ संयोग दूसरा था। जब रल्हन धर्मेन्द्र को ले कर ''फूल और पत्थर’ बना रहे थे तब हृषिकेश के साथ धर्मेन्द्र काम कर रहे थे 'अनुपमा’ में। ’अनुपमा’ के दिनों में ही हृषिकेश ने धर्मेन्द्र वचन ले लिया था कि 'सत्यकाम’ में नायक की भूमिका उसे करनी होगी। धर्मेन्द्र ने 'सत्यकाम’ में केवल भूमिका ही स्वीकार नहीं की, हृषिकेश को पंछी जैसा निर्माता भी दिया।
Song booklet cover of Phool Aur Patthar (1966) from Cinemaazi archive
निर्माता-निर्देशक भप्पी सोनीधर्मेन्द्र की फिल्मों से नहीं धर्मेन्द्र से प्रभावित थे। धर्मेन्द्र को वे तब से जानते थे जब उसके पास कोई भूमिका ही नहीं थी। वे फिदा थे तो धर्मेन्द्र के व्यवहार-विचार से। करार आदमी से होना चाहिए, फिल्में तो ससुरी अच्छी-बुरी, हिट-फ्लाप बनती ही रहती है। वे पिछले कई सालों से धर्मेन्द्र से करार करते आ रहे थे और हर साल अपने करार को रिवाइज करा लेते थे। आखिर उनके निर्माता बनने के अवसर भी तभी आया जब 'सत्यकाम’ और 'जीवन मृत्यु’ फ्लोर पर जाने वाली थी। भप्पी ने बड़े प्यार से अपनी फिल्म का नाम रखा, 'तुम हसीं मैं जवां’।
ठीक उन्हीं दिनों प्रोड्यूसर मदन मोहला की स्क्रिप्ट भी रेडी हो गयी। असित सेन ने उस फिल्म का भी निर्देशन किया जिसका नाम 'शराफत’ है। 'शराफत’ न तो धर्मेन्द्र की फिल्म लगती है, न ही असित सेन की। लेकिन वह भी चली। उसके बनने की एक कहानी है।
वादा ऐसा पूरा हुआ
असित सेन की पहली हिंदी फिल्म 'ममता’ में काम करने जब धर्मेन्द्र कलकत्ता पहुंचे थे तो उनपर फिदा हो गये। कलाकार या निर्देशक एक दूसरे पर जब फिदा होता है तो एक ही बात कहता है, ’तुम्हें मेरे साथ एक फिल्म करनी होगी।’ असित सेन ने धर्मेन्द्र से हां कर दी और 'ममता’ के प्रदर्शन के बाद बंबई में थे। एक रात धर्मेन्द्र खुशी-खुशी असित सेन के यहां पहुंचे और उनसे बोले, “मैंने तुम्हारे लिए एक पिक्चर साइन की है।”
“क्या आश्चर्य!” असित सेन ने कहा, “आज ही मैंने तुम्हारे लिए एक पिक्चर साइन की।”
“ठीक है, जब हम दो फिल्मों में एक साथ काम करेंगे।” धमेन्द्र ने कहा।
“तुम अपने प्रोड्यूसर का नाम बताओ।”
Song booklet cover of Anupama (1966) from Cinemaazi archive
“नहीं, पहले तुम अपने प्रोड्यूसर का नाम बताओ।” फिर दोनों ने जिस प्रोड्यूसर का नाम लिया वह एक ही था, मदन मोहला।
धर्मेन्द्र और असित सेन से अनुबंध कर लेने के बाद मदन मोहला कहानी की तलाश में निकल पड़े। असित सेन को जो कहानियां बेहद पसंद आतीं उन्हें सुन कर मदन का दिल बैठ जाता और जो कहानी उन्हें पसंद आतीं वे मार्किट में आ नहीं रही थी। आखिर बात 'शराफत’ में बनी जिसमें मजमून मदन का था, लिफाफा धर्मेन्द्र का और स्टांप असित सेन का। प्रोड्यूसर को दाद यहां देनी पड़ती है कि उसकी इस फिल्म ने रजत जयंती मनायी।
'सत्यकाम’, 'शराफत’, 'जीवन मृत्यु’ और 'तुम हसीं मैं जवां’ बनाने वाले निर्माता-निर्देशक का धर्मेन्द्र के प्रति अपना-अपना पूर्वाग्रह रहा है। धर्मेन्द्र को उनकी भूमिका देते समय उन्हें इस बात का जैसे अटल विश्वास हो कि उसे सही रोल देने वाले सिर्फ वही एक निर्माता है और बाकियों ने तो उसे समझा ही नहीं। इसके साथ ही उन्हें यह भी लगता रहा कि अगर उनकी भूमिका धर्मेन्द्र ने नहीं की तो दूसरा कौन कर सकेगा?
सचमुच वह रोल धर्मेन्द्र ही कर सकते थे। 'जीवन मृत्यु’ की सफलता के बाद तो यह बात और भी दावे के साथ कही जा सकती है। भारतीय रजतपट पर पहली बार उस फिल्म में एक खूबसूरत सरदार उभरा। विक्रम सिंह ने अपने कौशल और पराक्रम से दुराचारियों को जैसी मात दी वह दर्शकों को चमत्कृत कर गयी। यही तो असली धर्मेन्द्र है, 'फूल और पत्थर’ के बाद।
यह 'इमेज' तोड़ने के लिए...
'फूल और पत्थर’ निर्माताओं और दर्शकों को जितना याद है, धर्मेन्द्र को उतना याद नहीं। धर्मेन्द्र जानता है कि उसका वह इमेज इतना पक्का है कि उसे जब चाहे तब कैश करा सकता है। वह जब भी साका और विक्रम सिंह बन कर परदे पर आयेगा दर्शक तालियां बजायेंगे ही। इसलिए वह ऐसे निर्देशकों को अधिक प्यार करता है जो उसके इस इमेज को तोड़ने में उसकी मदद करते हों। उसके इस रूझान का भी कारण है।
'फूल और पत्थर’ की सफलता के पहले भी धर्मेन्द्र कई बार सफल हो चुका था। 'शोला और शबनम’ उसकी पहली फिल्म थी जिसमें उसने दर्शकों को एक उम्मीद दे दी थी। उस फिल्म में वह किसी को दबाता नहीं दबता है, पीटता नहीं पिटता है। उस फिल्म में वह धरातल पर पैर जमाता है और आकाश को छूता है। उसके बाद उसकी 'बंदिनी’ आयी, एक छोटी साफ़ सुथरी भूमिका। चित्र के प्रारंभ में वह आता है और जल्दी ही परदे से गायब हो जाता है। दर्शक मन में एक कसक ले कर उठते हैं, काश कि वह एक्टर कुछ और पलों के लिए सामने आ जाता। इन्हीं फिल्मों की पंक्ति में उसकी 'बेगाना’ भी आती है। मानसिक अंतद्र्वद्व से पीड़ित एक पति की भूमिका उसने कुशलता से निभायी थी।
Song booklet cover of Satyakam (1969) from Cinemaazi archive
ऐसी कई फिल्में हैं जिनमें धर्मेन्द्र कोई गीत नहीं गाये। इस दिशा में शायद वह और भी आगे बढ़ जाता लेकिन तभी कोलंबस को भारत दिख गया। उसकी फिल्म 'फूल और पत्थर’ प्रदर्शित हो गयी। लोग उसे लेकर 'शिकार’, 'आंखें’ और 'जीवन मृत्यु’ का निर्माण करने लगे। धर्मेन्द्र के लिए अच्छी बात सिर्फ यह रही कि इन फिल्मों की सफलता से वह स्वयं विमोहित नहीं हुआ। इन फिल्मों के समानांतर में उसने सप्रयास 'ममता’, 'अनुपमा’, ’शराफत’ और 'सत्यकाम’ को खड़ा रखा है। और इन दो लकीरों के बीच 'तुम हसीं मैं जवां’ तथा 'कब क्यों और कहां’ जैसी फिल्में भी की है।
'सत्यकाम’ सच पूछा जाये तो धर्मेन्द्र के लिए उपासना का विषय रहा। उस भूमिका को उसने कुशलता से निभाया नहीं, हर पल जिया है। चित्र निर्माण के दौरान सत्यप्रिय आचार्य और धर्मेन्द्र दो नहीं रहे थे।
'सत्यकाम’ के प्रदर्शन के बाद लोगों को आश्चर्य हुआ। कथा, अभिनय, निर्देशन की दृष्टि से फिल्म अनूठी थी। जहां लोग सेक्स, अपराध और मारपीट को सफलता का मानदंड बना बैठे हों वहां ऐसी सीधी साधी और सरल फिल्म एक अछूते विषय को ले कर आ जाय तो हैरानी होगी ही।
'सत्यकाम’ जैसी फिल्में भी रोज नहीं बना करतीं। वैसी फिल्मों को कम लोग देखते हैं और अधिक दिनों तक याद रखते हैं। ऐसी फिल्मों में काम करने से श्रेय मिलता है। उस श्रेय का एक मूल्य होता है, जो हर कलाकार को चुकाना पड़ता है। धर्मेन्द्र को भी यह मूल्य चुकाना पड़ा।
लेकिन मुझे खुशी हुई उस दिन जब हृषि दा के साथ राजकीय पुरस्कार लेने वह मद्रास में थे। हृषि दा ने कहा, “धर्मेन्द्र सब कुछ हुआ। लेकिन मुझे अफसोस है तुम्हें मेरी फिल्म की वजह से दुख उठाना पड़ा।” धर्मेन्द्र बोला, “कुछ नहीं दादा, अच्छी फिल्मों का समय आ रहा है न। हम फिर कोशिश करेंगे। एक बार और...”
This is a reproduced article from Madhuri, March 19, 1971 issue.
The images used in the article are from the Cinemaazi archive and were not part of the original article.